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पारिभाषिक शब्द-कोष
अमासिनी प्रकृति--जो प्रकृति आस्मिक गुणों का घात नहीं करती है। अपक्ष वर्गम-- चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों और मन के
द्वारा होने वाले अपने-अपने विषयभूस सामान्य बों का प्रतिभास | अधक्षुवर्शनावरण कर्म---अचक्षुदर्शन को आवरण करने वाला कर्म । अपामस्थिक-जिनके छभों (पार पाति कर्मों) का सर्वश्रा क्षय हो गया हो । अछाममस्थिक यमास्यात संयम-- केवलज्ञानियों का संपम । अन्नधाम मंध-एक समय अधिक जघन्य बंध से लेकर उत्कृष्ट बंध से पूर्व तक
के सभी बंध । अजीव-जिसमें चेतना न हो अर्थात् जड़ हो । अज्ञान मिष्यास्व-जीवादि पदार्थों को 'यही है 'इसी प्रकार है' इस तरह विशेष
रूप से न समझना। अरबौरासी लाख भडहांग का एक अइड कहलाता है। अग्ग -चौरासी लाख वटित के समय को एक अखडांग कहते हैं। मापल्योपम-उद्धारपल्य के रोमत्रहों में से प्रत्येक रोपखंड के कल्पना के
द्वारा उतने संड करे जितने सो वर्ष के समय होते हैं और उनको पस्य में मरने को अज्ञापल्म कहते हैं। अापल्म में से प्रति समय रोमखंडों को निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य लाली हो, उसे असा
पल्पोपम काल कहते हैं। अवासागर-दस कोटीकोटी अद्धापल्पोपमों का एक अद्भागागर होता है । अनुवध-आगे जाकर विशिछष हो जाने वाला बंध। आवश्र्वधिनी प्रकृति-बंध के कारणों के होने पर भी जो प्रकृति बँधती भी है
और नहीं भी बंधती है । मानुषसत्ता प्रकृति- मिथ्यात्व आदि दशा में जिस प्रकृति को सत्ता का निमम
न हो यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय सत्ता में न हो। अघोषया प्रकृति-उसे कहते हैं, जिसका अपने उदयकाल के अन्त तक उदय
मगासार नहीं रहता है । कमी उदय होता है और कभी नही होता है
यानी उदय-विच्छेद काल तक मी जिसके उदय का नियम न हो । मनक्षर भूत-जी शब्द अभिप्रायपूर्वक वर्णनात्मक नहीं बल्कि ध्वन्यात्मक किया
जाता है अथवा छींकना, चुटकी बजाना आदि संकेतों के द्वारा दूसरों के अभिप्राय को जानना अनक्षर श्रुत है।