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षष्ट कर्मग्रन्थ
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कोसं—उत्कृष्ट रूप से, सहनमं-जयन्य रूप से, पारस----झारह, हर्षति होती है ।
गापार्य-तद्भव मोक्षगामी जीव के चरम समय में उत्कृष्ट रूप से मनुष्यानुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की
और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता होती है । विशेषार्थ- इस गाथा में मतान्तर का उल्लेख किया गया है कि कुछ आचार्य अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में मनुष्यानुपूर्वी का भी उदय मानते हैं, इसलिये उनके मत से चरम समय में तेरह प्रकृतियों की और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता होती है।
पहले यह संकेत किया जा चुका है कि जिन प्रकृतियों का उदय अयोगि अवस्था में नहीं होता है, उनकी सत्ता का विच्छेद उपान्त्य समय में हो जाता है। मनुष्यानुपूर्वी का उदय पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में ही होता है, इसलिये इसका उदय अयोगि अवस्था में नहीं हो सकता है। इसी कारण इसकी सत्ता का विच्छेद अयोगिकेवली अवस्था के उपान्त्य समय में बतलाया है। लेकिन अन्य कुछ आचार्यों का मत है कि मनुष्यानुपूर्वी की सत्त्व-न्युच्छित्ति अयोगि अवस्था के अंतिम समय में होती है। इस मतान्तर के कारण अयोगि अवस्था के चरम समय में उत्कृष्ट रूप से तेरह प्रकृतियों की और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है । इस मतान्तर का स्पष्टीकरण आगे की गाथा में किया जा रहा है।
पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि सप्ततिका के कर्ता के मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी का उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है, जिससे अंतिम समय में उदयगत बारह प्रकृतियों या ग्यारह प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है । लेकिन कुछ आचार्यों के मतानुसार अंतिम समय में मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता और रहती है अत: अंतिम समय में तेरह या बारह प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है।