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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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से इस ग्रंथ की रचना की है, लेकिन विशेष जिज्ञासुजन दृष्टिवाद अंग का अध्ययन करें, और उससे बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों के भेदप्रभेदों को समझें। ग्रह सप्ततिका नामक ग्रन्थ तो उनके लिये मार्गदर्शक के समान हैं।
अब ग्रंथ की प्रामाणिकता, आधार आदि का निर्देश करने के बाद अंधकार अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ग्रंथ की समाप्ति के लिए गाथा कहते हैं
जो जस्म अपडिपुनो अत्थो अप्पागमेण बद्धो ति। तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊर्ग परिकहंतु ॥७२॥
शवार्य--ो-जिस, जत्थ-जहां, अपरियो- अपूर्ण, अस्थो- अर्थ, अप्पागमेण-अपश्रत, आगम के मल्प शाता-मैंने, बयोति-निबद्ध किया है, उसके लिये. अमिझण- क्षमा करके, बहसुपा-बहुश्रुत, परेऊणं—परिपूर्ण करफे, परिकहतु-मली प्रकार से प्रतिपादन करें।
गापा-मैं तो आगम का अल्प ज्ञाता है, इसलिए मैंने जिस प्रकरण में जितना अपरिपूर्ण अर्थ निबद्ध किया है, वह मेरा दोष-प्रमाद है। अतः बहुश्रुत जन मेरे उस दोष-प्रमाद को क्षमा करके उस अर्थ की पूर्ति करने के साथ कथन करें। विषाएं-गाथा में अपनी लघुता प्रगट करते हुए ग्रंथकार लिखते हैं कि मैं न तो विद्वान है और न बहभूत, किन्तु अल्पज्ञ है। इसलिये यह दावा नहीं करता हूँ कि ग्रंथ सर्वांगीण रूप से विशेष अर्थ को प्रगट करने वाला बन सका है। इस ग्रंथ में जिस विषय को प्रतिपादन करने की धारणा की हुई थी, सम्भव है अपनी अल्पज्ञता के कारण उसको पूरी तरह से न निभा पाया होऊं तो इसके लिये मेरा प्रमाद