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सप्ततिका प्रकरण प्राप्त होने वाली आत्मस्थिति का पूर्णरूपेण विवेचन किया जा चुका है। अत: अब ग्रंथकार ग्रंथ का उपसंहार करने के लिए गाथा कहते हैं कि-.
दुरहिगम-निउण-परमत्थ-रुइर-बहुभंगदिष्टिवायाओ । अत्था अणुसरियच्या बंधोषयसंतकम्माणं ॥७१।। ___शमा-रहिगम-अतिश्रम से जानने योग्य, मिणसूक्ष्म बुद्धिगम्य, परमस्थ-ययापस्थित अर्थवाला, चार-रुचिकर, आह्लादकारी, बहुभंगा-बहुत मंगवासा, बिट्टिनायायो-दृष्टिबाद अंग, आस्था---विशेष अर्थ वाला, अनुसरियण्या-जानने के लिये, .
पानातिकम्मा... शाम पद की। ____ यार्ष-दृष्टिवाद अंग अतिश्रम से जानने योग्य, सूक्ष्मबुद्धिगम्य, यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादक, आह्लादकारी, बहुत भंग वाला है । जो बंध, उदय और सत्ता रूप कमों को विशेष रूप से जानना चाहते हैं, उन्हें यह सब इससे जानना चाहिये। विशेषार्थ- गाथा में ग्रंथ का उपसंहार करते हुए बतलाया है कि यह सप्ततिका ग्रंथ दृष्टिवाद अंग के आधार पर लिखा गया है। इस प्रकार से ग्रंथ की प्रामाणिकता का संकेत करने के बाद बतलाया है कि दृष्टिवाद अंग दुरभिगम्य है, सब इसको सरलता से नहीं समझ सकते हैं। लेकिन जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है, सूक्ष्म पदार्थ को जानने के लिये जिज्ञासु हैं, वे ही इसमें प्रवेश कर पाते हैं। दृष्टिवाद अंग को दुरभिगम्य बताने का कारण यह है कि यद्यपि इसमें यथावस्थित अर्थ का सुन्दरता से युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है लेकिन अनेक भेदप्रभेद हैं, इसीलिये इसको कठिनता से जाना जाता है। इसका अपनी बुद्धि से मंथन करके जो कुछ भी ज्ञात किया जा सका उसके आधार