Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
षष्ठ कर्मग्रन्म
कर्मातीत अवस्था प्राप्ति के बाद प्राप्त होने वाले सुख के क्रमशः नौ विशेषण दिये हैं । उनमें पहला विशेषण है— 'सुइयं' जिसका अर्थ होता है शुचिक टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने शुचिक का अर्थ एकान्त शुद्ध किया है। इसका यह भाव है कि संसारी जीवों को प्राप्त होने वाला सुख रागद्वेष से मिला हुआ होता है, किन्तु सिद्ध जीवों को प्राप्त होने वाले सुख में रागद्वेष का सर्वथा अभाव होता है, इसलिये उनको जो सुख होता है वह शुद्ध आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें बाहरी वस्तु का संयोग और वियोग तथा इष्टानिष्ट कल्पना कारण नहीं है ।
दूसरा विशेषण है- 'सयल' - सकल । जिसका अर्थ सम्पूर्ण होता है । मोक्ष सुख को सम्पूर्ण कहने का कारण यह है कि संसार अवस्था में जीवों के कर्मों का संबंध बना रहता है, जिससे एक तो आत्मिक सुख की प्राप्ति होती हो नहीं और कदाचित् सम्यग्दर्शन आदि के निमित्त से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती भी है तो उसमें व्याकुलता का अभाव न होने से वह किचिन्मात्रा में सीमित मात्रा में प्राप्त होता है । किन्तु सिद्धों के सब बाधक कारणों का अभाव हो जाने से पूर्ण सिद्धि जन्य सुख प्राप्त होता है। इसी भाव को बतलाने के लिये 'सयल' विशेषण दिया गया है ।
४४७
तीसरा विशेषण 'जग सिह' - जग शिखर है जिसका अर्थ है कि जगत में जितने भी सुख हैं, सिद्ध जीवों का सुख उन सब में प्रधान है । क्योंकि आत्मा के अनन्त अनुजीवी गुणों में सुख भी एक गुण है। अत: जब तक यह जीव संसार में बना रहता है, वास करता है तब तक उसका यह गुण घातित रहता है। कदाचित् प्रगट भी होता है, तो स्वरूप मात्रा में प्रगट होता है। किन्तु सिद्ध जीवों के प्रतिबन्धक कारणों के दूर हो जाने से सुख गुण अपने पूर्ण रूप में प्रगट हो जाता है, इसलिये जगत में जितने भी प्रकार के सुख हैं, उनमें सिद्ध जीवों