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सप्ततिका प्रकरण नि:शेष रूप से कर्मों का क्षय हो जाने के बाद जीव एक समय में ही ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन करके सिद्धि स्थान को प्राप्त कर लेता है । आवश्यक चूणि में कहा है.--
जसिए नीवोऽवगाखो सावइयाए ओगाहणाए उई
मुग R . 4 समय में सह अयोगि अवस्था में प्रकृतियों के विच्छेद के मतान्तर का उल्लेख करने के बाद अब आगे की गाथा में यह बतलाते हैं कि अयोगि अवस्था के अंतिम समय में कमों का समूल नाश हो जाने के बाद निष्कर्मा शुद्ध आत्मा की अवस्था कैसी होती है।
अह सुइयसयलजगसिहरमत्यनिस्वमसहायसिविसुहं । अनिहणमवाबाहं तिरयणसारं अणुहवंति ॥७०॥
शाया---ग्रह-इसके बाद (कर्म मय होने के बाव), सुइय---.. एकांत शुद्ध', सयल-- समस्त, जगसिहर जगत के सुख के शिखर तुल्प, अश्य-रोग रहित, नियम-निरुपम, उपमारहित, सहाव--स्वाभाविक, . सिविसुर---मोक्ष सुख को, अमिहर्ग-नाश रहित, अनन्त, अब्बाबाई-अव्याबाघ, लिरयणसार-रत्न त्रय के सार रूप, अणुहति–अनुभव करते हैं।
गाथार्ष-कर्म क्षय होने के बाद जीव एकांत शुद्ध, समस्त जगत के सब सुखों से भी बढ़कर, रोगरहित, उपमा रहित, स्वाभाविक, नाशरहित, बाधारहित, रत्नत्रय के सार रूप मोक्ष सुख का अनुभव करते हैं।
विशेषा---गाथा में कर्मक्षय हो जाने के बाद जीव की स्थिति का वर्णन किया है कि वह सुख का अनुभव करता है।
उदयगबार गराण सेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा ||३४।। किन्तु पवला प्रथम पुस्तक में सप्ततिका के समान दोनों ही मतों का सल्लेख किया है । देखो धयला, प्रथम पुस्तक, पृ. २२४ ।