Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
अब अन्य आचार्यों द्वारा मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता अंतिम समय तक माने जाने के कारण को अगली गाथा में स्पष्ट करते हैं। मणुयगइसहगयाओ भवखित्तविधागजीववाग ति । बेयगियन्नयरुपचे च चरिम भविस्यस खीति ॥६॥
शवायं--मगुपगइसहगयाओ-मनुष्यगति के साथ उदय , को प्राप्त होने वाली, भवलित्तविवाग-मब और क्षेत्र विपाकी, जीववाग सि–जीवविपाकी, यणियन्नयर-अन्यतर वेदनीय (कोई एक वेदनीय कर्म), उच्वं-उच्च गोत्र, त्र-और, चरिम भवियस्सपरम समय में भव्य जीव के, खीयंति--आय होती है।
गामाई.. मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियों का तथा किसी एक वेदनीय और उच्च गोत्र का तद्भव मोक्षगामी भव्य जीव के चरम समय में क्षय होता है।
विशेषार्थ-इस गाथा में बतलाया गया है कि-'मणुयगइसहगयाओ' मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली जितनी भी भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियां हैं तथा कोई एक वेदनीय और उच्च गोत्र, इनका अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में क्षय होता है।
भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी का अर्थ यह है कि जो प्रकृतियां नरक आदि भव की प्रधानता से अपना फल देती हैं, घे भवविपाकी कही जाती हैं, जैसे चारों आयु । जो प्रकृतियां क्षेत्र की प्रधानता से अपना फल देती हैं वे क्षेत्रत्रिपाकी कहलाती हैं, जैसे चारों आनुपूर्वी। जो प्रकृतियां अपना फल जीव में देती हैं उन्हें जीव विपाकी कहते हैं, जैसे पांच ज्ञानावरण आदि ।
यहाँ मनुष्यायु भवविपाकी है, मनुष्यानुपूर्वी क्षेत्रविपाकी और