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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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काल' | इनमें से जब यह जीव अश्वकर्णकरण के काल में विद्यमान रहता है तब चारों संज्वलनों की अन्तरकरण से ऊपर की स्थिति में प्रतिसमय अनन्त अपूर्व स्पर्धक करता है तथा एक समय कम दो आवलिका प्रमाणकाल में बद्ध पुरुषवेद के दलिकों को इतने ही काल में संज्वलन क्रोध में संक्रमण कर नष्ट करता है। यहां पहले गुणसंक्रम होता है और अंतिम समय में सर्वसंक्रम होता है । अश्वकर्णकरण काल के समाप्त हो जाने पर किट्टीकरणकाल में प्रवेश करता है । यद्यपि किट्टियाँ अनन्त हैं पर स्थूल रूप से वे बारह हैं, जो प्रत्येक कषाय में तीन-तीन प्राप्त होती हैं। किन्तु जो जीव मान के उदय से क्षपकणि पर चढ़ता है वह उबलना विधि से क्रोध का क्षय करके शेष तीन कषायों को नौ किट्ट करता है ! यदि भाषा अध्यक्षपकणि पर चढ़ता है तो क्रोध और मान का उद्वलना विधि से क्षय करके शेष दो कषायों की छह किट्टियां करता है और यदि लोभ के उदय से क्षपकणि चढ़ता है तो उद्वलना विधि से कोष, मान और माया इन तीन का क्षय करके लोभ की तीन किट्टियां करता है । ___इस प्रकार किट्टीकरण के काल के समाप्त हो जाने पर क्रोध के उदय से क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव कोष की प्रथम किट्टी की द्वितीय स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकाल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । अनन्तर दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है
स्पर्घकों और अपूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उनके अनुभाग को अनन्त गुणहीन करके अंतराल से स्थापित किया जाता है, उसको
किट्टीकरण कहते हैं। १ किट्टी वनकाल–किट्टियों के वेदन करने, अनुमव करने के कान को
किट्टीवेदनकाल कहते हैं।