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सप्ततिका प्रकरण अपेक्षा उनकी भी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थान के काल के बराबर रहती है।
सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में निम्नलिखित तीस प्रकृतियों का विच्छेद होता है
साता या असाता में से कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तंजसशरीर, कार्मणशरीर, छह सस्थान, पहला संहान, औदारिकअंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, शुभअशुभ विहायोगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण ।
सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में उक्त तीस प्रकृतियों के उदय और उदीरणा का विच्छेद करके उसके अनन्तर समय में वे अयोगिकेवली हो जाते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थान का काल अन्तमुहूर्त है । इस अवस्था में भव का उपकार करने वाले कर्मों का क्षय करने के लिये व्युपरतक्रियाप्रतिपादि ध्यान करते हैं। वहाँ स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते हैं। किन्तु जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो अपनी स्थिति पूरी होने से अनुभव करके नष्ट कर देते हैं तथा जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता उनका स्तिबुकसंक्रम के द्वारा प्रति समय वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करते हुए अयोगिकवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक वेद्यमान प्रकृति रूप से वेदन करते हैं।
अब आगे की गाथा में अयोगिोवली के उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं।
देवगइसहगयाओ दुचरम समयभनियम्मि खीयंति । सविवागेयरनामा नीयागोयं पि तत्थेव ॥६॥
शम्बा-देवगासहगयामो–देवगति के साथ जिनका बंध होता है ऐसी, बुपरमसमयभाषियम्मिको अन्तिम समय जिसके