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सप्ततिका प्रकरण विमाछेद हो जाने पर उसका गुणसंक्रमण के द्वारा संज्वलन क्रोध में । संक्रमण करता है । संज्वलन कोष के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन मान में संक्रमण करता है। संज्वलन मान के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन माया में संक्रमण करता है । संज्वलन माया के भी बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन लोभ में संक्रमण करता है तथा संज्वलन लोभ के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर सूक्ष्म किट्टीगत लोभ का विनाश करता है।
इस प्रकार से संश्वलन क्रोध आदि कषायों की स्थिति हो जाने के बाद आगे की स्थिति बतलाते हैं कि लोभ का पूरी तरह से क्षय हो जाने पर उसके बाद के समय में क्षीणकषाय होता है क्षीणकषाय के काल के बहुभाग मध्यसात होने सक शेष कमां क संपतिधात आप कार्य पहले के समान चालू रहते है किन्तु जब एक भाग शेष रह जाता है तब ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की धार, अन्तराय की पांच और निद्राद्विक, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति का घात सपिवर्तना के द्वारा अपवर्तन करके उसे क्षीणकषाय के शेष रहे हए काल के बराबर करता है। केवल निद्राविक की स्थिति स्वरूप की अपेक्षा एक समय कम रहती है। सामान्य कर्म की अपेक्षा तो इनकी स्थिति शेष कर्मों के समान ही रहती है। सीणकषाय के सम्पूर्ण काल की अपेक्षा यह काल यद्यपि उसका एक भाग है तो भी उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इनकी स्थिति क्षीणकषाय के काल के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते किन्तु शेष कर्मों के होते हैं। निद्राद्विक के बिना शेष चौदह प्रकृतियों का एक समय अधिक एक आवलि काल के शेष रहने तक उदय और उदीरणा दोनों होते हैं। अनन्तर एक बावलि काल तक केवल उदप ही होता है। क्षीणकषाय के