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सप्ततिका प्रकरण
का क्षय हो जाता है। यहां पुरुषवेद के उदय और उदीरणा का विच्छेद हो चुका है, इसलिये यह अपगतवेदी हो जाता है।
उक्त कथन पुरुषवेद के उदय से क्षपकणि का आरोहण करने वाले जीव की अपेक्षा जानना चाहिये । किन्तु जो जीव नपुंसकवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर चलता है, जह सपा और सांधेद का एक साथ क्षय करता है तथा इसके जिस समय स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद वह अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है। यदि कोई जीव स्त्रीवेद के उदय से क्षपकवेगि पर चढ़ता है तो वह नपुंसक वेद का क्षय हो जाने के पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करता है, किन्तु इसके भी स्त्रीवेद के क्षय होने के समय ही पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है। पुरुषवेव के आधार से क्षपकणि का वर्णन
जो जीव पुरुषवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर क्रोध कषाय का वेदन कर रहा है तो उसके पुरुषवेद का उदयविच्छेद होने के बाद क्रोध कषाय का काल तीन भागों में बँट जाता हैअश्वकर्णकरणकाल', किट्टीकरणकाल' और किट्टीवेदन
१ अश्वकर्गकरण काल-घोड़े के कान को अश्वकणं कहते हैं। यह मूल में
बड़ा और ऊपर की ओर क्रम से पस्ता हुआ होता है। इसी प्रकार जिस करण में क्रोध से लेकर लोम तक चारों संज्वलनों का अनुमाग उत्तरोत्तर अनंतनगुणहीन हो जाता है, उस करण को अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसके आोलकरण और उवर्तनापवर्तनकरण, मे दो नाम और देखने को मिलते हैं। २ किट्टीकरण-किट्टी का अर्थ कृश करना है । अत: जिस करण में पूर्व