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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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तीन, पांच ग्यारह और चार सत्तास्थान हैं। जिनका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है ।
नरकादि गलियों में अन्धस्थान
नरकगति में दो बन्धस्थान हैं- २६ और ३० प्रकृतिक । इनमें से २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति प्रायोग्य दोनों प्रकार का है तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगतिप्रायोग्य हैं और तीर्थंकर सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य है ।
तिर्यंचगति में छह बन्धम्न हैं- २३ २५ २६ २८, २६ और ३० प्रकृतिक | इनका स्पष्टीकरण पहले के समान यहाँ भी करना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि यहाँ पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तीर्थंकर सहित और ३० प्रकृतिक बन्धस्थान आहारकद्विक सहित नहीं कहना चाहिये। क्योंकि तिर्यचों के तीर्थंकर और आहारकढिक का बन्ध नहीं होता है ।
मनुष्यगति के
स्थान हैं— २३, २५, २६, २८, २६,३०, ३१ और १ प्रकृतिक | इनका भी स्पष्टीकरण पूर्व के समान यहाँ भी कर लेना चाहिये ।
देवगति में चार बन्धस्थान हैं- २५ २६ २६ और ३० प्रकृतिक | इनमें से २५ प्रकृतिक वन्धस्थान पर्याप्त, बादर और प्रत्येक के साथ एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले देवों के जानना चाहिये । यहाँ स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ और यश: कीर्ति अयशः कीर्ति के विकल्प से ८ भंग होते हैं । उक्त २५ प्रकृतिक बन्धस्थान में आतप या उद्योत प्रकृति के मिला देने पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान के १६ भंग होते हैं । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य या तियंचगतिप्रायोग्य दोनों प्रकार का होता है