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सप्ततिका प्रकरण इससे अधिक बार नहीं। जो दो बार उपशमणि को प्राप्त होता है, उसके उस भव में क्षपकणि नहीं होती है लेकिन जो एक वार उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, उसके क्षपकणि होती भी है।
गाथा में यद्यपि सनात गुणाधी यमुना और मोहकि इस सात प्रकृतियों का उपशम कहा है और उसका क्रम निर्देश किया है. परन्तु प्रसंग से यहां टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना और चारित्र मोहनीय की उपशमना का भी विवेचन किया है।
इस प्रकार उपशमणि का कथन करने के बाद अब क्षपकश्रेणि के कथन करने की इच्छा से पहले क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति कहां और किस क्रम से होती है, उसका निर्देश करते हैं।
पढमकसायचउपकं एत्तो मिच्छत्समीससम्मत्तं । अविरय देसे विरए पमत्ति अपमत्ति खोयंति ॥६३॥
शब्दार्थ-पसमकसायचजक्कं-प्रथम कषाय चतुष्क (अनत्तानु. बन्धी कषाय चतुष्क) एत्तो-तदनन्तर, इसके बाद, मिच्छसमीससम्मत-मिथ्यात्व, मिश्र और राम्यकत्व मोहनीय का, अविरयअविरत सम्यग्दृष्टि, वेसे- देशविरत, विरए–विरत, पति अपत्ति --प्रमत्त और अप्रमत्त, खोयंति-क्षय होता है।
गाथार्थ- अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत, इन चार गुणस्थानों में से किसी एक
१ जो दुवे वारे जवसमसेविं पडिवज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि, जो एक्कासि उनसमसेहि पडिवज्जइ तस्स स्ववगसेती होज्ज वा ।।
-पूर्णि लेकिन आगम के अभिप्रायानुसार एक मव में एक बार होती है----
मोहोपशम एकस्मिन् भये द्वि: स्मादसन्ततः । यस्मिन् मवे तूपशमः क्षयो मोहस्य सत्र न ।।