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क! अंश होता है। अतः अब पापा के संकेतानुसार गुणदानों में बंध अकालियों की संख्या का निर्देश करते हैं। ___ सातद लापानविरत गुणस्थान में उनसठ प्रकृतिगों का बंध मला है- 'मरिसरमाणलो' । यह तो पहले बतलाया जा झुका है कि
प्रमत्तचिन्तत गुणस्थान में ६३ प्रकृत्तियों का बंध होता है, उनमें से असालावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीति, इन छह प्रकलियों का सातवे गुणस्थान में बंध नहीं होता है, छठे गुणस्थान तक बंध होता है। अत: पूर्वोक्त ६३ प्रकृतियों में से इन ६ प्रकृतियों को कम कर देने पर. ५७ प्रभातियों शेष रहती हैं, लेकिन इस गुणस्थान में आहारकद्धिक का बंध होता है जिससे ५७ में २ प्रकृतियों को लौर मिला देने पर अप्रमत्तसंयत के ५६ प्रकृतियों का बंध कहा गया है।
उक्त प्रतियों में देतायु भी सम्मिलित है लेकिन अन्धकार में अपमतसंगत देवायु का भी बंध करता है... 'बंधइ देवालयस्स इधर नि-रा प्रकार शक से निर्देश किया है। उसका अभिप्राय यह है कडायु के संग का प्रारम्भ समतसंपत ही करता है फिर भी यह
लायु का वर करते हुए अप्रमत्तसंयत भी हो जाता है और इस प्रकार असमतपत भी देवायु का बंधक होता है। परन्तु इससे
बह न समझं कि अनमतसंयत भी देवायु के बंध का प्रारम्भ रहा है। अप्रमतसंपत देवायु के बंध का प्रारम्भ करता है। यदि यह अभिप्राय लिया जाता है तो ऐसा सोचना उचित नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ग्रंथकार ने 'अप्रमत्तसंयत भी देवायु का बंध करता है' यह निर्देश किया है।' --- . .-.- -. .. . १ तेनैतत् सूच्यते --प्रमत्तसंयत शवायुर्वन्धं प्रधभत सारभसे, आरभ्य व
कोरिखदप्रमानाथमपि हाति, तप्त एवमप्रमत्तसंसप्तोऽषि देवायुषो बन्धको अति, न पुगरपात्तसंयत एव सन् अयरत आयुबन्धमारमत इति ।
---सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २४४