Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अनंतानुबंधीचतुष्क की उपशमना के लिए वह जीव यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के तीन करण करता । यथाप्रकरण में तो करण के पहले के समान अवस्था बनी रहती है । अपूर्वकरण में स्थितिबंध आदि बहुत-सी कियायें होने लगती हैं, इसलिये इसे अपूर्वकरण कहते हैं और अनिवृतिकरण में समान काल बालों की विशुद्धि समान होती है इसीलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अब उक्त विषय को विशेष स्पष्ट करते हैं कि यथाप्रवृत्तकरण में प्रत्येक समय उत्तरोतर अनंतगुणी विशुद्धि होती है और शुभ प्रकृतियों का यंत्र आदि पूर्ववत् चालू रहता है । किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और गुणसंकम नहीं होता है, क्योंकि यहाँ इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती है और नाना जीवों की अपेक्षा इस करण में प्रति समय असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो छह स्थान पतित होते हैं ।
हानि और वृद्धि की अपेक्षा ये छह स्थान दो प्रकार के होते हैं१ अनंत भागहानि, २ असंख्यात भागहानि, ३ . संख्यात भागहानि ४. संख्यात गुणहानि, ५. असंख्यात गुणहानि, और ६- अनंत गुणहानि
शुभा एवं बध्नाति नाशुभाः। अशुभानां च प्रकृतीनामनुमागं चतुःस्थानकं सन्तं द्विस्वानकं करोति, शुभश्नां च द्विस्थानकं सन्तं चतुःस्थानकम् । स्थितिमधेपि पुणं पूर्ण राति अन्य स्थितिबन्धं पूर्वपूर्वस्थितिबायापेक्षया पोमसंख्येवमागहीनं करोति ।
-सहतिका प्रकरण टोका, पृ० २४६
१ यथाप्रवृत्तकरण कर दूसरा नाम पूर्व प्रवृत्तकरण भी है, दिगम्बर परम्परा में मय प्रवृत्तकरण को अधःप्रवृत्तकरण कहा गया है।
२
नव स्थितिघात रसघातं पुनर्वोनि गुणसंक्रमं वा करोति, तद्योम्बविशुद्ध भावात् ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका,
पृ० २४६