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पष्ठ कर्मग्रन्थ वाले हैं । अत: उपशमणि और क्षपकणि का स्वरूप बतलाना जरूरी है । यह पहले उपशमणि का स्वरूप कथन करते हैं। पक्षमफसायचउर्फ बंसतिग सत्तगा वि उवसंता ।। अधिरतसम्मत्तामो जाव नियट्टि ति नायच्या ।।६२।।
शब्दार्थ---पदमफसायचमक-प्रथम. कषाय चतुष्क (अनंतानुबंधीकषायचतुष्क), वसतिग-दर्शनमोहनीयत्रिक, ससगा विसातों प्रकृतियाँ, उपसंता-उपशान्त हुई, अविरतसम्मताओ अविरत सम्यगर ष्टि गुणस्थान से लेकर, आव नियट्टि लि---अपूर्वकरण गुणस्थान तक, नायब्वा जानना चाहिये।
गाथार्य-प्रथम कषाय चतुष्क (अनंतानुबंधी वाषाय चतुष्क) दर्शनमोहनिक, ये सात प्रकृतियां अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक नियम से उपशांत हो जाती हैं, ऐसा जानना चाहिये । विशेषार्ष-उपशमणि का स्वरूप बतलाने के लिये गाथा में यह बतलाया है कि उपशमणि का प्रारम्भ किस प्रकार होता है।
कर्म शक्ति को निष्क्रिय बनाने के लिये दो श्रेणि हैं--उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि । इन दोनों श्रेणियों का मुख्य लक्ष्य मोहनीयकर्म को निष्क्रिय बनाने का है। उसमें से उपशमणि में जीव चारित्र मोहनीयकर्म का उपशम करता है और क्षपश्रेणि में जीव चारित्रमोहनीय और यथासंभव अन्य कर्मों का क्षय करता है। इनमें से जब जीव उपशमणि को प्राप्त करता है तब पहले अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का उपशम करता है, तदनन्तर दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम करके उपशमणि के योग्य होता है । इन सात प्रकृतियों के उपशम का प्रारंभ तो अविरत सम्यादृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानों में से किसी