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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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यद्यपि उक्त संकेत के अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि यहाँ मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का विचार किया जाये लेकिन तीसरे कर्मग्रंथ में इसका विस्तार से विचार किया जा चुका है अत: जिज्ञासु जन वहाँ से जान लेवे। ___ अब किस गति में कितनी प्रकृतियों की सत्ता होती है, इसका कथन आगे की गाथा में करते हैं। तिस्थगरदेवानरयाउगं च तिसु तिसु गईसु बाद्धग्वं । अवसेसा पयडीओ हवंति समासु वि गईसु॥६१॥
शगार्म-तिस्पगरवानिरवाडा....तीर्थकर, देवायु और नरकायु, 1-और, तितुति--तीन-तीन, गईमु-गतियों में, बोवश्व -मानना चाहिये, भवसेप्ता-क्षेष, बाकी की, पपडीओ-प्रकृतियाँ, हरति--होती हैं, सम्बरसु-समी, वि-मी, गईमुगतियों में ।
भावार्थ-तीर्थकर नाम, देवायु और नरकायुइनकी सत्ता तीन-तीन मतियों में होती है और इनके सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता सभी गतियों में होती है।
विशेषार्ष-अब जिस गति में जितनी प्रकृतियों की सत्ता होती है, उसका निर्देश करते हैं कि तीर्थंकर नाम, देवायु और नरकायु, इन तीन प्रकृतियों की सत्ता सीन-तीन गतियों में पाई जाती है। अर्थात सीर्थकर नामकर्म की नरक, देव और मनुष्य इन तीन गतियों में सत्ता पाई जाती है, किन्तु तियंचगति में नहीं। क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता बाला तिथंचगति में उत्पन्न नहीं होता है, तथा तियंचगति में तीर्थकर नामकर्म का बंध नहीं होता है । अतः नरक, देव और मनुष्य, इन तीन गतियों में ही तीर्थकर प्रकृति की सत्ता वतलाई है।
तिर्यच, मनुष्य और देव गति में ही देवायु की सत्ता पाई जाती है, क्योंकि नरकगति में नारकों के देवायु के बंध न होने का नियम है।