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सप्ततिका प्रकरण प्रत्येक गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध और विचछेद होता है और उनके नाम मावि का उल्लेख दितीय कर्मग्रंथ में विशेष रूप से किया गया है। अतः जिज्ञासु जन उसको देख लेवें।। ___ गुणस्थानों में अपस्वामित्व का उपसंहार करते हुए मार्गणाओं में भी सामान्य से बषस्वामित्व को बतलाने के लिये कहते हैं किएसो उबंधसामित्तमोषो गायाएसु वि सहेव । मोहामो साहिएजा जप महा परिसम्भाषो ॥६०॥
पा-एलोप पूपोंक्त गुणस्थान का बभव, - भोर, पितापित- पामित्व का, भौगो-कोष (सामाग्य) से, नामााए-गति मावि मार्गणामों में, वि-भी, सहब-वैसे ही, इसी प्रकार, कोप मgere, हमा पाहिये, नव-जिस मार्गणास्थान में, महा-जिस प्रकार से, पगचितामापी-महति का सम्मान ।
मानार्थ-यह पूर्वोक्त गुणस्थानों का बंधभेद, स्वामित्व का श्रीष कमन जानना चाहिये। गति आदि मार्गणाओं में भी इसी प्रकार (सामान्य से) जहाँ जितनी प्रवृत्तियों का बंध
होता है, तबनुसार यहाँ भी मोष के समान बंधस्वामित्व . का कपत करना चाहिये।।
विवा-पिछली बार गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृत्तियों संभ कर और धनहीं करने का कथन किया गया है । जिससे सामाम्पसमा स्वामिस्म का काम हो जाता है। तथापि गति आदि मारणामों में कितनी-तिमी प्रतियों का वध होता है और कितनीकितनी प्रातियों का नहीं होता है, इसको जानना शेष रह जाता है। इसका लिम गाथा में सनी पूषना दी गई है कि जहां जितनी प्रातियों का होता हो इसका विचार करके ओष के समान मागणास्थानों में भी स्वामित्व का कषम कर लेना चाहिये।