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षष्ठ फर्म ग्रन्थ
४०५ ही दूसरा नाम है, किन्तु विसंयोजना और क्षपणा में सिर्फ इतना अंतर है कि जिन प्रकृतियों की विसंयोजना होती है, उनकी पुन: सत्ता प्राप्त हो जाती है, किन्तु जिन प्रकृतियों की क्षपणा होती है, उनकी पुन: सत्ता प्राप्त नहीं होती है ।
अनन्तानुबंधी की विसंयोजना अविरत सम्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थान में होती है । चौथे गुणस्थान में चारों गति के जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं। पांचवें गुणस्थान में तिथंच और मनुष्य अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं और छठे व सातवें गुणस्थान में मनुष्य ही अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हैं। इसके लिये भी पहले के समान यशात्तकरण बाद तीन बार किरे जो हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि विसंयोजना के लिये अन्तरकरण की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु आवलि प्रमाण दलिकों को छोड़कर ऊपर के सब दलिकों का अन्य सजातीय प्रकृति रूप से संक्रमण करने और आवलि प्रमाण दलिकों का वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रमण करके उनका विनाश कर दिया जाता है।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी की उपशमना और विसंयोजना का विचार किया गया अब दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों की उपशमना का विचार करते हैं।
माता हा
दिगम्बर परम्परा में कषायपाहुड, उसकी चूणि, पखंडागम और लक्षिसार में भी अनन्तानुबंधी के विसयोजन वाले मत का ही उल्लेख मिलता है। कर्मप्रकृति के समान कामपाहुर की पूणि में भी अनन्तानुबंधी के उपकाम का स्पष्ट निषेध किया है, लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित सप्ततिका में उपशम याला मत भी पाया जाता है और गो० कर्मकांड से इस बात का अवश्य पता लगता है कि वे अनंतानुबंधी के उपशम वाले मत से परिचित थे ।