________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
४.१
और अनिवृत्तिकरण का काल जिस प्रकार उत्तरोत्तर व्यतीत होता जाता है, तदनुसार गुणश्रेणि के दलिकों का निक्षेप अन्तर्मुहूर्त के उत्तरोतर शेष बचे हुए समयों में होता है, अन्तर्मुहूर्त से ऊपर के समयों में नहीं होता है। जैसे कि मान लो गुणधेणि के अन्तर्मुहुर्त का प्रमाण पचास समय है और अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण इन दोनों के काल का प्रमाण चालीस समय है। अब जो जीव अपूर्वकरण के पहले समय में गुणश्रेणि की रचना करता है वह गुणश्रेणि के सब समयों में दलिकों का निक्षेप करता है तथा दूसरे समय में शेष उनचास समयों में दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार जैसे-जैसे अपूर्वकरण का काल व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे दलिकों का निक्षेप कम-कम समयों में होता जाता है। ___ गुणसंक्रम में कर्म प्रकृतियों के दलिकों का संक्रम होता है। अत: गुणसंक्रम प्रदेशसंक्रम का एक भेद है। इसमें प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से अबध्यमान अनंतानुबंधी आदि अशुभ कर्म प्रकृतियों के कर्म दलिकों का उस समय बंधने वाली सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण होता है । यह क्रिया अपूर्वकरण के पहले समय से ही प्रारम्भ हो जाती है।
स्थितिबंध का रूप इस प्रकार होता है कि अपूर्वकरण के पहले समय से ही जो स्थितिबंध' होता है, वह अपूर्व अर्थात् इसके पहले होने वाले स्थितिबंध से बहुत थोड़ा होता है। इसके सम्बन्ध में यह नियम है कि स्थितिबंध और स्थितिघात इन दोनों का प्रारम्भ एक साथ होता है और इनकी समाप्ति भी एक साथ होती है। इस प्रकार इन पांचों कार्यों का प्रारम्भ अपूर्वकरण में एक साथ होता है ।। ____ अपूर्वकरण समाप्त होने पर अनिवत्तिकरण होता है। इसमें प्रविष्ट हुए जीवों के परिणामों में एकरूपता होती है अर्थात् इस