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सप्ततिका प्रकरण अपूर्वकरण नामक भाउ पुणस्थान में अट्ठावन, अप्पन और जम्बीस प्रतियों का होता है। प्रहतियों को संस्था में भिन्नता का कारण महत पूर्णकानिग में रोमेशन के हार का विन्धेर हो जाने पर अपूर्णकरण गुणस्थान बाला जीप पहले संस्थातवें भाग में ५ कृतियों का बंध करता है। अनन्तर निमा और प्रघला का अधिक हो जाने पर संश्यात भाग के शेष रहने तक ५६ प्रहतियों काम करता है और उसके बाद देवगति, देवानुपूर्वी, पपणिय जाति, क्रिय करीर, हिय अंगोपांग, आहारक शरीर, भाहारक अंगोपांग, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, पणे पसुष्क, अगुरुला, उपमात, परापात, उपवास, प्रशस्त बिहायोगति, बस, पावर, पर्याप्त, प्रत्येक, हिपर, शुभ, सुभग, सुस्बर, आदेय, निर्माण और सीकर, इन तीस प्रतियों का बंधविनोद हो जाने पर अंतिम भाग में २१ प्रकृतियों का करता है। इसी का संकेत करने
लिये गाया में निर्देश है कि-अद्वाबलमपुम्यो छप्पण्णं पर वि घनीसे।
इस प्रकार से आठ पुणस्थान तक की मेध प्रकृतियों का कथन किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में शेष रहे छह गुणस्थानों की बेध प्रकृतियों की संख्या को पतलाते है।
बाबीसा एपूर्ण बंधा अडारसंतमनियट्टी। सत्तर मुटुमसरागो साबममोहो सबोगि ति ॥६॥
मला-बामात-माईस, पूर्व-एक एक कम, परपरसा है, महारत-अशा पन्त, अनिवडी-निमुहिवार दुमस्थान बाला, सतर--सबक मिसरायो भूकमसंपराय पुगस्म बाला, साथ-साता वेरमीय को, अबोहो-मोही (उपासमोह भीष मोह) समोमिति-शोषिकेसी स्थान तक ।