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सप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा नामकर्म के बंध, उदर और सत्ता स्थानों तथा उनके संवेघों का कथन जानना चाहिये । ___ अब आगे की माथा में बंध आदि स्थानों के आठ अनुयोगद्वारों में कथन करने का संकेत करते हैं...
इय कम्भपगइठाणाई सुठु बंधुक्यसंतम्माणं । गइआइएहि असु चउष्पगारेण नैयाणि ॥५३॥
शवार्य-य-पूर्वोक्त प्रकार से, कम्मपगाठाणाई--कर्म प्रकृतियों के स्थानों को, सुकु अत्यन्त उपयोगपूर्वक, बंधुपपसंत
-बंध, र । पपी कर्म न पृशियों के, गहआइएहि-गति आदि मार्गणास्थानों के द्वारा, अटुसु-आठ अनुयोगहारों में, उपपगारेण--चार प्रकार से. नेवाणि-जानना चाहिये। ___लाचार्थ --ये पूर्वोक्त बंध, उदय और सत्ता सम्बन्धी कर्म प्रकृतियों के स्थानों को अत्यन्त उपयोगपूर्वक गति आदि मार्गणास्थानों के साथ आठ अनुयोगद्वारों में चार प्रकार से जानना चाहिये।
विशेषार्ष-~इस माथा से पूर्व तक ज्ञानावरण आदि आठ वार्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंत्र, उदय और सत्ता स्थानों का सामान्य रूप से तथा जीवस्थान, गुणस्थान, गतिमार्गणा और इन्द्रियमार्गणा में निर्देश किया है। लेकिन इस गाथा में कुछ विशेष संकेत करते हैं कि जैसा पूर्व में गति आदि मार्गणाओं में कथन किया गया है, उसके साथ उनको आठ अनुयोगद्वारों में घटित कर लेना चाहिये। इसके साथ यह भी संकेत किया है कि सिर्फ प्रकृतिबंध रूप नहीं किन्तु 'चउप्पगारेण नेयाणि' प्रकृतिबंध के साथ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से भी घटित करना चाहिये । क्योंकि ये बंध, उदय और