Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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দাবি সন্ধা
जाता है । इस प्रकार १४८ में से दस प्रकृतियों को कम कर देने पर १३८ प्रकृत्तियाँ रह जाती हैं तथा वर्णचतुष्क के अवान्तर भेद २० हैं किन्तु बंध में अवान्तर भेदों की विवक्षा न करके मूल में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये चार प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं । अतएव १३० में से २०-४=१६ घटा देने पर १२२ प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं। दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यास्व और मिथ्यात्व, ये तीन प्रकृतियाँ हैं। उनमें से सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ बंध प्रकृतियां नहीं हैं। क्योंकि बंध मिथ्यात्व प्रकृति का होता है और जीव अपने सम्यक्त्व गुण के द्वारा ही मिथ्यात्व के दलिकों के तीन भाग बना देता है। इनमें से जो अत्यन्त विशुद्ध होता है उसे सम्यक्त्व और जो कम विशुद्ध होता है उसे सम्यगमिथ्यात्व संज्ञा प्राप्त होती है और इन दोनों के अतिरिक्त शेष अशुद्ध भाग मिथ्यात्व कहलाता है । अतः १२२ में से सम्यक्त्व व सम्यगमिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों को घटा देने पर शेष १२० प्रकृतियाँ बंधयोग्य मानी जाती हैं ।
इन १२० प्रकृतियों में से किस गुणस्थान में कितनी-कितनी प्रकृतियों का बंध होता है, इसका विवेचन इस गाथा से प्रारम्भ किया गया है।
पहले मिथ्यात्य मुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाने के लिये गाथा में कहा है कि तीर्थकरनाम और आहारकद्विक--आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग-इन तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष ११७ प्रकृतियों का बंध होता है। इन तीन प्रकृतियों के बंध न होने का कारण यह है कि तीर्थकरनाम का बंध सम्यक्त्व गुण के सद्भाव में और आहारकद्धिक का बंध संयम के सद्भाव में होता है। किन्तु पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में न सम्यक्त्व है और न संयम । इसीलिये मिथ्यात्व गुणस्थान में उक्त तीन प्रकृतियों का बंध न होकर शेष ११७ प्रकृतियों का बंध होता है ।