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षद कर्मग्रन्थ
विद्यमान जीव के ही होता है, अन्य के नहीं। यहाँ सभी प्रकृतियाँ अप्रशस्त हैं, अत: एक ही भंग जानना चाहिये।
इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदि जीवस्थानों में भी यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान और १ भंग जानना चाहिये 1 किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक जीवस्थान में द्वीन्द्रिय जाति न कहकर श्रीन्द्रिय जाति आदि अपनी-अपनी जाति का उदय कहना चाहिये।
अनन्तर २१ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरस्थ जीव के औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुंडसंस्थान, सेवात संहनन, उपधात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों के मिलाने और तिर्य चानुपूर्वी के निकाल देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग होता है। इस प्रकार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि प्रत्येक जीवस्थान में दो-दो उदयस्थानों की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं ।
लेकिन अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान इसका अपवाद है। क्योंकि अपर्याप्त संज्ञो जीवस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति दोनों में होता है । अत: यहाँ इस अपेक्षा से चार भंग प्राप्त होते हैं।'
इन सात जीवस्थानों में से प्रत्येक में ६२, ५८, १६, ८० और ७८ प्रकृतिक पाँच-पाँच सत्तास्थान हैं । अपर्याप्त अवस्था में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता सम्भव नहीं है अत: इन सातों जीवस्थानों में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी शेष सत्तास्थान सम्भव होने से उक्त पाँच सत्तास्थान कहे हैं। ___ इस प्रकार से सात अपर्याप्त जीवस्थानों में नामकर्म के बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान जानना चाहिये। अब इसके अनन्तर पण
१ केवलमपर्याप्तसंज्ञिनश्चत्वारः, यतो द्वौ मंगावपर्याप्तसंज्ञिनस्तिरश्चः प्राध्येते, द्वौ वापर्याप्तमं जिनो मनुष्यस्येति ।
--सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० २०१