________________
पष्ट कर्मग्रन्थ
२५७
विशेषार्थ- इन गाथाओं में गुणस्थानों की अपेक्षा दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का निर्देश किया पाया है।
दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ हैं हैं। इनमें से सत्याद्धित्रिक का बंध सासादन गुणस्थान तक ही होता है तथा चक्षुर्दर्शनावरण आदि चार का उदय अपने उदयविच्छेद होने तक निरंतर बना रहता है किन्तु निद्रा आदि पांच का उदय कदाचित होता है और कदाचित नहीं होता है तथा उसमें भी एक समय में एक का ही उदय होता है, एक साथ दो का या दो से अधिक का नहीं होता है। इसीलिये मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में प्रकृतिक बंध, ४ प्रकृतिक उदय और ६ प्रकृतिक सत्ता तथा ६ प्रकृतिक बंध, ५ प्रकृतिक उदय और प्रकृतिक राना, नो अंग न होते हैं .-'मिच्छासाणे बिइए नव चउ पण नव य संतसा ।' ___ इन दो-मिथ्यात्न और सासादन गुणस्थानों के आगे तीसरे मिश्र गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक'भिस्साइ नियट्टीओ छचउ पण नब य संतकम्मंसा'---छह का बंध, चार या पांच का उदय और नौ की सत्ता होती है। इसका कारण यह है कि स्त्याद्धित्रिक का बंध सासादन गुणस्थान तक होने से छह प्रशिक बंध होता है । किन्तु उदय और सत्ता प्रकृतियों में कोई अंतर नहीं पड़ता है । अतः इन गुणस्थानों में छह प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक
खीणो त्ति चारि उक्ष्या पंचसु गिद्दासु दोसु णिहासु । एक्के उदयं पत्ते खीणदुचरिमोति पंचुदया ।। मिच्यादुवसंतो ति य अणियट्टी खग पठममागोत्ति । पवसत्ता वीणस्स दुचरिमोसि य छच्चदूवरिमे ।।
___-गो. कर्मकार ४६०-४५२