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सप्ततिका प्रकरण
जो जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान में वैक्रिय काययोग और आहारक काययोग को प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत हो जाता है, उसके अप्रमत्तसंयत अवस्था में रहते हुए ये दो योग होते हैं। वैसे अप्रमत्तसंयत जीव वैक्रिय और आहारक समुद्घात का प्रारम्भ नहीं करता है, अत: इस गुणस्थान में वैक्रियमिश्र काययोग और आहारकमिश्र काययोग नहीं माना है। इसी कारण सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक, वैकिय व आहारक काययोग, ये ग्यारह योग होते हैं। इन योगों में भंगों की आठ-आठ चौबीसी होनी चाहिये थीं। किन्तु आहारक काययोग में स्त्रीवेद नहीं होने से दस योगों में तो भंगों की आठ चौबीसी और आहारक काययोग में आठ षोडशक प्राप्त होते हैं। इन सब भंगों का जोड़ २०४८ होता है जो अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में योगापेक्षा होते हैं ।
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आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में नौ योग और प्रत्येक योग में भंगों की चार चौबीसी होती हैं। अतः यहाँ कुल भंग ८६४ होते हैं। नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में योग है और भंग १६ होते हैं अतः १६ को से गुणित करने पर यहां कुल भंग १४४ प्राप्त होते हैं तथा दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में योग और भंग १ है । अतः यहां
६
कुल ६ भंग प्राप्त होते हैं ।
उपर्युक्त दसों गुणस्थानों के कुल भंगों को जोड़ने पर २२०८ - १२१६+६६० + २२४० + २११२ + २३६६ + २०४६+६६४+१४४+६ = १४१६९ प्रमाण होता है। कहा भी है
चटक्स य सहस्सा सयं व गुणहतरं उदयमाणं । 1
अर्थात् योगों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के कुल उदयविकल्पों का प्रमाण १४१६६ होता है ।
१ पंचसंग्रह सप्ततिका गा० १२०