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षा कर्मग्रन्थ
३११ के निमित्त से होता है अतः यहाँ देवगति के योग्य २६ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं कहा है। ___ ३० प्रति बंधस्था १ मि मिचिए, चारिदिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के होता है। इनमें से पर्याप्त द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य ३० प्रवृत्तियों का बंध होते समय प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध होते समय ४६.०८ भंग होते हैं । इस प्रकार ३० प्रवृतिक बंधस्थान के कुल भंग ४६३२ होते हैं ।
यद्यपि तीर्थकर प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य और आहारकद्विक के साथ देवगति के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध होता है किन्तु ये दोनों ही स्थान मिथ्या दृष्टि के सम्भव नहीं होते हैं, क्योंकि तीर्थक र प्रकृति का बंध सम्यक्त्व के निमित्त से और आहारकद्विक का बंध संयम के निमित्त से होता है। कहा भी है
सम्मत्तगुणनिमित्त तित्ययर संजमेण आहारं । अर्थात्-तीर्थंकर का बंध सम्यक्त्व के निमित्त से और आहारकद्विक का बंध संयम के निमित्त से होता है । इसीलिये यहाँ मनुष्यगति और देवगति के योग्य ३० प्रकृतिक बंधस्थान नहीं कहा है।
पूर्वोक्त प्रकार से अन्तर्भाष्य माथा में भी मिथ्यादृष्टि के २३ प्रकृतिक आदि बंधस्थानों के भंग बतलाये हैं। भाष्य को गाथा इस प्रकार है
चन पणवीसा सोलस नव पत्ताला सया य वाणउया । बत्तीसुत्तरछायालसपा मिच्छस्स बम्धविहो ॥
१ या तु देवगतिप्रायोग्या तीर्थकरनामसहिता एकोनत्रिशत सा मिथ्यादृष्टेनं बन्धमायाति, तीर्थकरनाम्नः सम्यक्त्यप्रत्ययवाद मिथ्यारण्टेश्च सदमावात् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २२३