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प्रण
क्रमश: एक बंधस्थान, एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान हैं- एगेम मट्ठ' | जिनका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में एक यशःकीर्ति प्रकृति का बंध होने से एक प्रकृतिक बंस्थान है तथा उदयस्थान भी एक ३० प्रकृतिक है और सत्तास्थान १३, ९२, ८६, ५ ८० ७६ ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये आठ हैं। इनमें से प्रारंभ के चार सत्तास्थान उपशम श्रेणि में होते हैं और जब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं होता तब तक क्षपकश्रेणि में भी होते हैं । उक्त चारों स्थानों की सत्ता वाले जीवों के १३ प्रकृतियों का क्षय होने पर क्रम से ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतियों की सत्ता प्राप्त होती है। अर्थात १३ की सत्ता वाले के १३ के क्षय होने पर ८० की, ६२ की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७६ की, की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७६ की और की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७५ की सत्ता शेष रहती है । इस प्रकार यहाँ आठ सत्तास्थान जानना चाहिये । यहाँ बंघस्थान और उदयस्थान में भेद न होने से अर्थात् दोनों के एक-एक होने से संवेध सम्भव नहीं है । यानी यहां यद्यपि सत्तास्थान आठ होने पर भी बंधस्थान और उदयस्थान के एक-एक होने से संबंध को पृथक से कहने की आवश्यकता नहीं है ।
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान की तरह सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में भी यथा: कीर्ति रूप एक प्रकृतिक एक बंधस्थान है, ३० प्रकृतिक उदयस्थान है तथा पूर्वोक्त ६३ आदि प्रकृतिक, आठ सत्तास्थान हैं। उक्त आठ सत्तास्मानों में से आदि के चार उपशमश्रेणि में होते हैं और शेष ८० आदि प्रकृतिक, अंत के चार क्षपकश्रेणि में होते हैं। शेष कथन अनिवृत्तिबादर गुणस्थान की तरह जानना चाहिये ।
अब उपशांतमोह आदि ग्यारह से लेकर चौदह गुणस्थान तक के भंगों का कथन करते हैं- 'छउमत्थकेवलिजिणा' ।