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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३२९ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान हैं। इनमें से देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के २८ प्रकृतिक बंघस्थान होता है । अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य शेष गतियों के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते, इसलिये यहाँ नरकगति के योग्य २८ प्रकृतिक बंथस्थान नहीं होता है। ___ २६ प्रकृतिक बंधस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है। एक तो तीर्थकर प्रकति के साथ देवगांत के योग्य प्रतियों का संचकारने वाले मनुष्यों के होता है । इसके ८ भंग होते हैं। दूसरा मनुष्यगति के योग्या प्रकृतियों का बंध करने वाले देव और नारकों के होता है। यहां भी
आठ भंग होते हैं। तीर्थकर प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य प्रकृ. तियों का बंध करने वाले देव और नारकों के ३० प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इसके भी आठ भंग होते हैं । ___ अब आठ उदयस्थानों को बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये ८ उदयस्थान हैं।
इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के जानना चाहिये। क्योंकि जिसने आयुकर्म के बंध के पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है, उसके चारों गतियों में २१ प्रकृतिक उदयस्थान संभव है। किन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तों में उत्पन्न नहीं होता अत: यहाँ अपर्याप्त संबंधी भंगों को छोड़कर शेष भंग
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१ मनुष्याणां देवगतिप्रायोभ्यं तीर्थंकरसहितं बघ्नतामेकोनत्रिशत्, अत्राप्यष्टो भंगाः । देब-नरयिकाणां मनुरागतिप्रायोग्य बनतामेकोनत्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टो मंगाः । वेषामेव मनुष्यगतिप्रायोग्य तीर्थकरसहितं बनता प्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टो मंगाः ।
– सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ. २३०