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षष्ठ कर्मग्रन्य स्थान होता है। इसमें तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर २६ प्रकृतिक तथा तीर्थंकर प्रकृति को अलग करके आहारकद्विक को मिलाने से ३० प्रकृतिक तथा तीर्धवार और आहारकद्धिक की युगनत मिलाने पर ३१ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इन सब बंधस्थानों का एक-एक ही भंग होता है । क्योंकि अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, अशुभ और अयश:कीति का बंध नहीं होता है।
सातवें गुणस्थान में दो उदयस्थान होते हैं जो २६ और ३० प्रकृतिक हैं। जिसने पहले प्रमत्तसंयत अवस्था में आहारक या वैक्रिय समुद्घात को करने के बाद अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त किया है उसके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके यहाँ दो भंग होते हैं जो एक वैक्रिय की अपेक्षा और दूसरा आहारक की अपेक्षा । ३० प्रकृतिक उदयस्थान में भी दो भंग होते हैं तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ अप्रमत्ततपत जीव के भी होता है अत: उसकी अपेक्षा यहाँ १४४ भंग और होते हैं जिनका कुल जोड़ १४६ है। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के दो उदयस्थानों के कुल १४८ भंग होते हैं ।
विगम्बर परम्परा में अप्रमत्त संयत के ३० प्रकृतिक, एक ही उदयस्थान बतलाया है। इसका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परा में यही एकमत पाया जाता है कि आहारक समुद्घात को करने वाले जीव को स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने पर भी सातवां गुणस्थान प्राप्त नहीं होता है तथा इसी प्रबार दिगम्बर परम्परा के अनुसार बैंक्रिय समृद्घात को करने वाला जीव मी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । इसीलिये गो. कमंकाड मा ५०१ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान
ही बसाया है। २ सयोननिशद् यो नाम पूर्व प्रमत्तसंयत: सन् आहारफ बैंक्रियं वा निर्वर्त्य पउनादप्रमत्तमावं गच्छनि लस्म प्राप्य ।
- सप्ततिका प्रकरण टीकर, पृ. २३३