________________
पर पाय
२८३ इस प्रकार गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के उदयस्थानों व उनके भङ्गों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में उपयोग आदि की अपेक्षा भङ्गों का निर्देश करते हैंयोग, उपयोग और लेश्याओं में भंग
जोगोवओगलेसाइएहिं गुणिया' हवंति कायस्वा । जे जस्थ गुणहाणे हवं ति ते तस्य गुणकारा ॥४७॥
शम्पाय--जोगोषओगलेसाइएहि-योग, उपयोग और लेश्यादिक से, गुणिया-गुणा, हति–होते हैं, कापवा करना चाहिये, जे-जो मोगादि, जस्थ गुणटाणे---जिस गुणस्थान में, हवंति–होते है, ते—उतने, तस्थ—उसमें, गुणकारा-गुणकार संख्या ।
गाथार्थ-पूर्वोक्त उदयभङ्गों को, योग, उपयोग और लेश्या आदि से गुणा करना चाहिये। इसके लिये जिस गुणस्थान में जितने योगादि हों वहाँ उतने गुणकार संख्या होती है।
विशेषार्थ-गुणस्थान में मोहनीयकर्म के उदयविकल्पों और पदवृन्दों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। अब इस गाथा में योग, उपयोग और लेश्याओं की अपेक्षा उनकी संख्या का कथन करते हैं कि वह संख्या कितनी-कितनी होती है।
१ तुलना कीजिये(क) एवं ओगुवओमा लेसाई भेय ओ बहभेया । जा जस्स बंमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो ।
-पंचसंग्रह सप्ततिका गा० ११७ (ख) उदयट्ठाणं पढि सगसगउबजोगजोगआदीहि । गुण यिप्ता मेल विदे पदसंखा परिसंखा य ।
-गोकर्मकार गा० ४९०