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पष्ठ कर्म ग्रन्थ
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प्रकृतिक बन्ध, पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता, ये तीनों प्राप्त होते हैं 11 लेकिन दसवें गुणस्थान में इन दोनों का बन्धविच्छेद हो जाने से उपशांतमोह और क्षीणमोह- ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पांच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्ता ये दो ही प्राप्त होते हैं । बारहवें गुणस्थान से आगे तेरहवे, चौदहवें गुणस्थान में इन दोनों कर्मों के बन्ध, उदय और सत्ता का अभाव हो जाने से बंध, उदय और सत्ता में से कोई भी नहीं पाई जाती है।
ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के बंधादि स्थानों को बतलाने के बाद अत्र दर्शनावरण कर्म के भंगों का कथन करते हैं ।
मिच्छासाणे ब्रिइए नव चउ पण नव य संतसा ॥३६॥ मिस्साए नियट्टीओ व चच पण नव य संतक मंसा ।
उबंध तिगे च पण नवंस वुसु जुयल छ स्संता ॥४०॥ जयसं घड पण नव खोणं चजश्वय छकच च संतं ।
शब्दार्थ –मिच्छासाणे - मिथ्यात्व और सामान गुणस्थान में, बिए - दूसरे कर्म के, नबनौ च पण चार या पांच नवनौ य-और संसा--सत्ता ।
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मिस्साइ मिश्र गुणस्थान से लेकर, नियट्टोओ-- अपूर्वकरण गुणस्थान तक छपण-छह चार या पांच नव नौ, यऔर संतकम्मंसा सत्ता प्रकृति, चजबंध - चार का बंध, तिगे
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१ मिथ्यादृष्ट्यादिषु दशसु गुणस्थानकेषु ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च पंचविधो बंध: पंचविष उदयः पंचविधा सत्ता इत्यर्थः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०७ र बन्धाभावे उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च ज्ञानावरणीयाऽन्तराययोः प्रत्येकं पंचविध उदयः पंत्रविद्या च सत्ता भवतीति परत उदय सत्तयोरप्यभावः । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०७