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षण्ठ कर्म प्रय
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संख्या उदयस्थान की और तीसरी संख्या सत्तास्थान की द्योतक है । गाथा में संख्या के ऐसे कुल छह पुंज हैं। दूसरी गाथा में चौदह जीवस्थानों को छह भागों में विभाजित किया गया है। जिसका यह तात्पर्य हुआ कि पहले भाग के जीवस्थान पहले पुंज के स्वामी दूसरे भाग के जीवस्थान दूसरे पुंज के स्वामी हैं इत्यादि ।
यद्यपि गाथागत संकेत से इतना तो जान लिया जाता है कि अमुक जीवस्थान में इतने बंधस्थान, इतने उदयस्थान और इतने सत्तास्थान हैं, किन्तु वे कौन-कौन से हैं और उनमें कितनी कितनी प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है, यह ज्ञात नहीं होता है। अतः यहाँ उन्हीं का भंगों के साथ आचार्य मलयगिरि कृत टीका के अनुसार विस्तार से विवेचन किया जाता है।
'पण दुर्गा पणगं सत्तेव अपज्जत्ता' दोनों गाथाओं के पदों को यथाक्रम से जोड़ने पर यह एक पक्ष हुआ। जिसका यह अर्थ हुआ कि चौदह जीवस्थानों में से सात अपर्याप्त जीवस्थानों में से प्रत्येक में पाँच बंधस्थान, दो उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान हैं । जिनका स्पष्टीकरण यह है कि सात प्रकार के अपर्याप्त जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, देवगति और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का नहीं, अतः इन सात अपर्याप्त जीवस्थानों में २८, ३१ और १ प्रकृतिक बंधस्थान न होकर २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच बंधस्थान होते हैं और इनमें भी मनुष्यगति तथा तिथंचगति के योग्य प्रकृतियों का ही बंध होता है । इन बंघस्थानों का विशेष विवेचन नामकर्म के बंघस्थान बतलाने के अवसर पर किया गया है, अतः वहाँ से समझ लेना चाहिये। यहाँ सब बंस्थानों के मिलाकर प्रत्येक जीवस्थान में १३९४७ भंग होते हैं ।