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सप्ततिका प्रकरण जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधादि स्थानों व संवैध भंगों को बतलाने के बाद अब नामकर्म के भंगों को बतलाते हैं
पण दुग पणगं पण चउ पणगं पणगा हवंति तिन्नेव । पण छप्पणगं छमछप्पणगं अदृट्ठ दसगं ति ॥३७॥ सत्तेव अपज्जसा सामी तह सुहम बायरा चेव । विलिविया उ तिन्नि उ तह य असम्नी य सन्नी य॥३८॥
भावार्य-पण दुग पणर्ग-पांच, दो, पाँच, पण चउ पगगं--पाच, चार, पांच, पगगा-पांच-पांच, हवंति-होते हैं, तिन्मेष-तीनों ही (बंध, उदय और सत्तास्थान), पण छप्पण-पांच, छह, पाच, छप्पणगं-छह, छह, पाच, अटुट-आठ, आठ, बसगं- दस, ति–इस प्रकार ।
सत्तेब-सातों ही, अपज्जता अपर्याप्त, सामी-स्वामी, तहतथा, सुहम-सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, पापरा-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, घेव-और, विगलिक्ष्यिा-विकलेन्द्रिय पर्याप्त, तिमि-लीन, तहवैसे ही, प-और, असम्मी-असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, सन्नी-संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ।
गापार्ष-पांच, दो, पाँच; पाँच, चार, पाँच; पाँच, पाँच, पाँच पांच, छह, पांच छह, छह, पाँच और आठ, आठ, दस; ये बंध, उदय और सत्तास्थान हैं। .
इनके क्रम से सातों अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, विकलत्रिक पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वामी जानना चाहिए । विशेषा-इन दो गाथाओं में जीवस्थानों में नामकर्म के भंगों का विचार किया गया है। पहली गाथा में तीन-तीन संख्याओं का. एक पुंज लिया गया है, जिसमें से पहली संख्या बंधस्थान की, दूसरी