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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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बंधस्थान होते हैं और प्रत्येक बंधस्थान में २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान हैं तथा शेष चार उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय चारचार सत्तास्थान है। ये कुल मिलाकर २६ सत्तास्थान हुए। इस प्रकार पांच बंधस्थानों के १३० भंग हुए ।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त की तरह श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त के बंध स्थान आदि जानना चाहिये तथा उनके भी १३०, १३० भङ्ग होते हैं ।
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असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में भी २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक इन पांच बंधस्थानों में से प्रत्येक बंधस्थान में विकलेन्द्रियों की तरह लम्बीस भङ्ग होते हैं जिनका योग १३० है । परन्तु २८ प्रकृतिक बंधस्थान में ३० और ३१ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान ही होते हैं । अतः यहां प्रत्येक उदयस्थान में ६२, ८८ और ८६ प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। इनके कुल ६ भङ्ग हुए। यहां तीन सत्तास्थान होने का कारण यह है कि २८ प्रकृतिक बंधस्थान देवगति और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध पर्याप्त के ही होता है ।" इसी प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में १३० + ६ = १३६ भङ्ग होते हैं ।
संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २३ प्रकृतिक बधस्थान में जैसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २६ सत्तास्थान बतलाये, वैसे यहां भी जानना
१ अष्टाविधातिबंधकाना पुनस्तेषां द्वै एवोदयस्थाने, तद्यथा-विशदेकत्रिशच्च । तत्र प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा - विनवतिः अष्टाशीतिः षडशीतिश्च । अष्टाविंशतिहिं देवगतिप्रायोग्या नरकगतिप्रायोग्या वा, ततस्तस्यां बध्यमानायामवषयं वैक्रियचतुष्टयादि बध्यते इत्यशीति- अष्टसप्वती न प्राप्येते । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०५