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पष्ठ कर्मग्रन्य
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उदयस्थान होता है । देवों के जो दुभंग, अनादेय और अयश:कोति का उदय कहा है, वह पिशाच आदि देवों की अपेक्षा समझना चाहिये। यहाँ सुभग और दुर्भग में से किसी एक, आदेय और अनादेय में से एक और यश:कीति और अयशःकीर्ति में से किसी एक का उदय होने से, इनकी अपेक्षा कुल २४२४२ मा होते हैं। ___ इस २१ प्रकृतिक उदयस्थान में दैकिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, उपघात, प्रत्येक और समचतुरस्र संस्थान, इन पाँच प्रकृतियों को मिलाने और देवगत्यानुपूर्वी को निकाल देने पर शरीरस्थ देव के २५. प्रकृतिक उपयस्वार होता है। यहां में पूर्ववत् आज म होते हैं। __ अनन्तर.२५ प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वानुसार आठ भङ्ग होते हैं। देवों के अप्रशस्त विहायोगति का उदय नहीं होने से तनिमित्तक भङ्ग नहीं कहे हैं। ___ अनन्तर २७ प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देश के उच्छवास को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोक्त आठ भङ्ग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के पूर्वोक्त. २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्यान में कुल १६ भाग होते हैं । ___ भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ्वास सहित 15 प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिला देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्यान होता है । यहाँ भी आठ भङ्ग पूर्ववत् जानना चाहिये । देवों के दुःस्थर प्रकृति का उदय नहीं होता है, अतः तन्निमित्तक भज यहां नहीं कहै हैं । अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास