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२१॥
षष्ठ कर्मग्रन्थ भंगों को बतलाने के बाद अब दर्शनावरण, वेदनीय, त्यायु और गोत्र कार्म के बंधादि स्थानों के अंगों को बतलाते हैं।
तेरे नथ चज पणगं न संतेगम्मि भंगमेषकारा । बेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं शोच्छं ॥३५।।
शम्वार्थ-तर-तरह जोजस्थानों मे, नव-नां प्रकृतिक बंध, घाउ पणगं-चार अथवा पांच प्रकृतिक उदय, मनसंत-नौ की सत्ता, एगम्भि-एक जीवस्थान में, भंगकारा-ग्यारह मंग होते हैं, वेणियाउयगोए-वेदनीया, आयू और गोश कर्म में, विभज्ज--विकल्प करके, मोहं-मोहनीय कर्म के, परं-आगे, वोच्छं-- महेंगे।
गाया-तेरह जीवस्थानों में नौ प्रकृतिक बंध, चार या पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता होती है। एक जीबस्थान में ग्यारह भंग होते हैं । वदनीय, आयु और गोत्र कर्म में बंधादि स्थानों का विभाग करके मोहनीय कर्म के बारे में आगे कहेंगे। विशेषार्थ-गाथा में दर्शनावरण, वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के बंधादि स्थानों को बतला कर बाद में मोहनीय कर्म के विकल्प बतलाने का संकेत किया है।
दर्शनावरण कर्म के बंधादि विकल्प इस प्रकार हैं कि आदि के तेरह जीवस्थानों में नौ प्रकृतिक बंध, चार या पाँच प्रकृतिक उदय तथा नौ प्रकृतिक सत्ता, ये दो भंग होते हैं। अर्थात् नौ प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता यह एक भंग और नौ प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय तथा नौ प्रकृतिक सत्ता यह दूसरा भंग, इस प्रकार आदि के तेरह जीवस्थानों में दो भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानों में दर्शनावरण कर्म की किसी भी उत्तर प्रकृति का न तो बंधविच्छेद होता है, न उदयविच्छेद