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सप्ततिका प्रकरण
होता है और न सत्ताविच्छेद ही होता है । निद्रा, निद्रानिद्रा आदि पांच निद्राओं में से एक काल में किसी एक का उदय होता भी है और नहीं भी होता है । इसीलिये इन पाँच निद्राओं में से किसी एक का उदय होने या न होने की अपेक्षा से आदि के तेरह जीवस्थानों के दो भंग बतलाये हैं ।
परन्तु एक जो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान है उसमें ग्यारह मंग होते हैं -- एगम्भि भंगमेक्कारा' । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में गुणस्थानों के क्रम से दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्ता तथा इनकी व्युच्छित्ति सब कुछ सम्भव है । इसीलिये इस जीवस्थान में दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बघ उदय और सत्ता की अपेक्षा २१ अंग होने का संकेत किया गया है । इन ग्यारह भंगों का विचार पूर्व में दर्शनावरण के सामान्य संवैध भंगों के प्रसंग में किया जा चुका है। अतः पुनः यहाँ उनका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जिज्ञासु-जन वहां से इनकी जानकारी कर लेवें ।
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इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म के संवेध भंगों का कथन करने के बाद वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंग बतलाते हैं । लेकिन ग्रन्थकर्त्ता ने स्वयं उक्त तीन कर्मों के भंगों का निर्देश नहीं किया और न ही यह बताया कि किस जीवस्थान में कितने भंग होते हैं । किन्तु इनका विवेचन आवश्यक होने से अन्य आधार से इनका स्पष्टीकरण करते हैं ।
भाग्य में एक गाथा आई है, जिसमें बेदनीय और गोत्र कर्म के भंगों का विवेचन चौदह जीवस्थानों की अपेक्षा किया गया है। उक्त भाषा इस प्रकार है
पज्जतसनियरे अट्ठ चक्कं च वैयणियभंगा । सक्षम लिगं च गोए पलेयं जीवठा ||