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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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इनमें से सासादन भाव के काल में २१ प्रकृतिक बंधस्थान में और १०, ये तीन-तीन उदयस्थान होते हैं तथा २२ प्रकृतिक बंधस्थान में ८, ६ और १० ये तीन तीन उदयस्थान होते हैं। इन जीवस्थानों में भी एक नपुंसकवेद का ही उदय होता है अतः यहाँ भी ७, ८ और ह और १० प्रकृतिक उदयस्थान के क्रमशः ८ १६ और भंग होते हैं तथा इसी प्रकार ८६ और १० प्रकृतिक उदयस्थान के क्रमशः ८, १६ और भंग होंगे, किन्तु चूर्णिकार का मत है कि असंज्ञी लब्धिपर्याप्त के यथायोग्य तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय होता है। अतः इस मत के अनुसार असंज्ञी लब्धि पर्याप्त के सात आदि उदयस्थानों में से प्रत्येक में रंग न होकर ग होते हैं।
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पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में उदयस्थान हैं, जिनका उल्लेख मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के प्रसंग में किया जा चुका है। अतः उनको वहाँ से जान लेवें ।
जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के सत्तास्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि 'तिम तिग पन्नरस संतम्मि' अर्थात् आठ जीवस्थानों में तीन, पांच जीवस्थानों में तीन और एक जीवस्थान में १५ होते हैं । पूर्वोक्त आठ जीवस्थानों में से प्रत्येक में २५, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में इन तीन के अलावा और सत्तास्थान नहीं पाये जाते हैं। इसी प्रकार से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पांच जीवस्थानों में भी २८, २७ और २६ प्रक्रतिक सत्तास्थान समझना चाहिये और एक पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में सभी १५ सत्तास्थान हैं। क्योंकि इस जीवस्थान में सभी गुणस्थान होते हैं।
१ एक्केककमि उदयम्मि नपुंसगवेदेणं चेच अदु-अष्टु मंगा सेसा न संभवति....। असन्निपज्जतगस्त तिहि वि वेदेहि उष्ठावेयज्जा ।