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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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मिथ्यादृष्टि पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होते हैं तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के होता है। उक्त उदयस्थान वाले जीवों के सिवाय शेष जीव २३ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। अतः २३ प्रकृतिक बंधस्थान में उक्त २१ आदि प्रकृतिक ९ उदयस्थान होते हैं ।
२३ प्रकृतियों को बाँधने वाले जीत्रों के पांच सत्तास्थान हैं । उनमें ग्रहण की गई प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है - ६२,८८,८६, ८० और ७८ । इनका स्पष्टीकरण यह है- २१ प्रकृतियों के उदय वाले उक्त जीवों के तो सब सत्तास्थान पाये जाते हैं, केवल मनुष्यों के ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है, क्योंकि मनुष्यगति और मनुष्यनुपूर्वी की उलना करने पर ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । किन्तु मनुष्यों के इन दो प्रकृतियों को उद्बलना सम्भव नहीं है।
२४ प्रकृतिक उदयस्थान के समय भी पांचों सत्तास्थान होते हैं । लेकिन वैक्रिय शरीर को करने वाले वायुकायिक जीवों के २४ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए ८० और ७८ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं। क्योंकि इनके वैक्रियषट्क और मनुष्यद्विक की सत्ता नियम से है । ये जीव बँक्रिय शरीर का तो साक्षात ही अनुभव कर रहे हैं । अतः इनके वैक्रियद्विक की उबलना सम्भव नहीं है और इसके अभाव में देवद्विक और नरकद्विक की भी उद्बलना सम्भव नहीं है, क्योंकि वैकियषट्क की उद्बलना एक साथ ही होती है, यह स्वाभाविक नियम है और वैक्रियपट्क की उवलना हो जाने पर ही मनुष्यद्विक की उवलना होती है, अन्यथा नहीं होती है । चूर्णि में भी कहा है
जनकं उबले पच्छा मणुयगं जवले |
अर्थात् वैकियषट्क की उद्बलना करने के अनन्तर ही यह जीव मनुष्यद्विक की उलना करता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि