Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पछ कर्मग्रन्थ
मनुष्यों के होते हैं । ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्यों के तथा आहारक संयत और वैक्रिय संयतों के होता है। ३१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है।
नरक गति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होते समय ३० प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्या दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के होता है तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यचों को होता है।
अब २८ प्रकृतिक बंधस्थान में सत्तास्थानों की अपेक्षा विचार करते हैं । २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के सामान्य से ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं। उसमें भी जिसके २१ प्रकृतियों का उदय हो और देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होता हो, उसके १२ और ८ ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि यहाँ तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नहीं होती है । यदि तीर्थकर प्रकृति की सत्ता मानें तो देवगति के योग्य २८ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं बनता है।
२५ प्रकृतियों का उदय रहते हुए २८ प्रकृतियों का बंध आहारक संयत और वैक्रिय शरीर को करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। अत: यहाँ भी सामान्य से ६२ और ८५ प्रकृतिक, ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। इनमें से आहारक संयतों के आहारकचतुष्क की सत्ता नियम से होती है, जिससे इनके ६२ प्रकृतियों की ही सत्ता होगी। शेष जीवों के आहारकचतुष्क की सत्ता हो भी और न भी हो, जिससे इनके दोनों सत्तास्थान बन जाते हैं।
२६, २७, २८ और २६ प्रकृतियों के उदय में भी ये दो ६२ और म प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं।
३० प्रकृतिक उदयस्थान में देवगति या नरकगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के सामान्य से ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं । इनमें से १२ और ८८ प्रकृतिक