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सप्ततिका प्रकरण
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सत्तास्थानों का विचार तो पूर्ववत् है और शेप दो सत्तास्थानों के बारे में यह विशेषता नाहिए कि किसी एक समुदय ने नरकायु का बंध करने के बाद वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, अनन्तर मनुष्य पर्याय के अन्त में वह सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यादृष्टि हुआ तब उसके अन्तिम अन्तर्मुहुर्त में तीर्थंकर प्रकृति का बंध न होकर २८ प्रकृतियों का ही बंध होता है और सत्ता में ह प्रकृतियाँ ही प्राप्त होती है, जिसमे यहाँ पर प्रकृतियों की सत्ता बनलाई है । ३ प्रकृतियों में से तीर्थकर आहारकचतुष्क, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी और वैक्रिय चतुष्क इन १३ प्रकृतियों के बिना ८० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार ८० प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य होकर सब पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ और अनम्तर यदि वह विशुद्ध परिणाम वाला हुआ तो उसने देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध किया और इस प्रकार देवद्विक और वैक्रिय चतुष्क की सत्ता प्राप्त की, अत: उसके २८ प्रकृतियों के बंध के समय ८६ प्रकृतियों की सत्ता होती है और यदि वह जीव संक्लेश परिणाम वाला हुआ तो उसके नरकगति योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होता है और इस प्रकार नरकद्विक और वैकियचतुष्क की सत्ता प्राप्त हो जाने के कारण भी ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान में २८ प्रकृतियों का बंध होते समय ६२, और ६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान
होते हैं ।
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३१ प्रकृतिक उदयस्थान में १२, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। यहाँ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि जिसके २८ प्रकृतियों का बंध और ३१ प्रकृतियों का उदय है, वह पंचेन्द्रिय तिर्यच ही होगा और तिर्यंचों के तीर्थंकर प्रक्रति की सत्ता नहीं है, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला मनुष्य तिथंचों में