________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
गुण | बंध । स्थान स्थान |
मंग उदयस्थान
उदयभंग |
सत्तास्थान
संवेघभंग |
३ ३.६२.८६.८.८०.७६,७६,'
७५ १८०७६
I.
१३१४५/
१ ७६,५५८ ६५j ४६७२४ ।
इस प्रकार आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान, उदय. स्थान और सत्तास्थानों और उनके परस्पर संवेध भंगों का कथन समाप्त हुआ। अब इसी क्रम में उनके जीवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा भंग का कथन करते हैं।
तिविगप्पपगइवाणेहिं जीवगुणसन्निएसु ठाणेसु । भंगा पजियव्या जत्थ जहा संभवो भव ॥३३॥
वार्ष-तिविगप्पपगाताहि-तीन विकल्पों के प्रकृतिस्थानों के द्वारा, जीवगुगसमिएसु---श्रीव और गुण संज्ञा पाले, ठाणेसु-स्थानों में, भंगा--भंग, उजियवा-घटित करना चाहिए, जत्थ.... जहाँ, जहा संभयो-जितने समय, भवाह---होते हैं।
गावार्थ-तीन विकल्पों (बंध, उदय और सत्ता) के प्रकृतिस्थानों के द्वारा जीव और गुण संज्ञा वाले स्थानों (जीवस्थात, गुणस्थानों) में जहाँ जितने भंग संभव हों वहां उत्तने भंग घटित कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ-अभी तक ग्रन्थ में मुल और उत्तर प्रकृतियों के बधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों व उनके संवेध भंग बतलाये हैं तथा साथ ही मुल प्रकृतियों के इन स्थानों और उनके संबैध भंगों