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सप्ततिका प्रकरण
१२,१२ भङ्ग होते हैं। किन्तु वे सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में सम्भव होने से उनकी अलग से गिनती नहीं की है।
प्रकृतिक उदयस्थान में मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति और तीर्थकर, इन नौ प्रकृतियों का उदय होता है। यह नौ प्रकृतिक उदयस्थान तीर्थंकर केवली के अयोगिकेवती गुणस्थान में प्राप्त होता है। इस उदयस्थान में से तीर्थकर प्रकृति को घटा देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह अयोगिकेवली गुणस्थान में अतीर्थंकर केवली के होता है।
यहाँ केवली के उदग्रस्थानों में २०,२१,२७,२६,३०,३१, ६ और ८ इन आठ उदयस्थानों का एक-एक विशेष भङ्ग होता है। अत: आठ भङ्ग हुए। इनमें से २० प्रशिक, और निक, दो उदयस्थानों के दो भङ्ग अतीर्थंकर केवली के होते हैं तथा शेष छह भङ्ग तीर्थंकर केवली के होते हैं।'
इस प्रकार सब मनुष्यों के उदरस्थान सम्बन्धी कुल भङ्ग २६०२+३५+७+८= २६५२ होते हैं ।
अब देवों के उदयस्थान और उनके भङ्गों का कथन करते हैं ।
देवों के २१, २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, चे छह उदयस्थान होते हैं।
नामकर्म की ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों में देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर, पर्याप्त, सुभग और दुर्भग में से कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक तथा यश:कीति और अयशःकीर्ति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों के मिला देने पर २१ प्रकृतिक १ शह केवल्युदयस्थानमध्ये विशति एकविंशति-राप्तविंशति,एकोनविशत्-प्रिशद्
एकत्रिशद्-नवाऽष्टरूपैयष्टसूदयस्थानेषु प्रत्येमेककको विशेषमंगः प्राप्यते इमष्टो भंगाः । तत्र विशत्यष्टकयोभंगावतीर्थ कृतः शेषेषु षट्सु उदपस्थानेषु तीर्थ कृतः षड् भंगाः। --सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १८६