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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अनन्तर प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए नारक के २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उच्छ् वास को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भङ्ग होता है ।
भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के २८ प्रकृतिक उदयस्थान में दु:स्वर को मिला देने पर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक भंग है ।
इस प्रकार नारकों के २१, २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं और इन पांचों का एक-एक भंग होने से कुल पाँच भंग होते हैं।
अब तक नामकर्म के एकेन्द्रिय से लेकर नारकों तक के जो उदयस्थान बताये गये हैं उनके कुल भंग ४२+६६+४९६२÷२६५२+ ६४+५=७७६१ होते हैं |
नामकर्म के उदयस्थानों व भंगों का निर्देश करने के अनन्तर अब दो गाथाओं में प्रत्येक उदयस्थान के भंगों का विचार करते हैं । एग बियालेक्कारस तेत्तीसा छस्सयाणि तेतीसा । वारससत्तरससयाणहिगाणि बिपंचसीईहि ॥२७॥ अणसी सेक्कार सस्याहिगा सतरसपंचसट्ठीहि । secret च सावदयंतेसु उदयविही ॥ २८ ॥
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शब्दार्थ --- एग एक, बियालेक्कारस—दयालीस ग्यारह, तेतीसा-तीस छत्यागि छह सौ तेत्तीसा - तेतीस, बारससप्तर ससयाहिगाणि - बारह सौ और सत्रह सौ अधिक, बिवसीईहिदो और पचासी अउणत्ती सेवकार ससया हिंगा - उनतीस सौ और ग्यारह सौ अधिक स्तरसपंचसट्ठीहि सत्रह और पैंसठ इवकेषकएक-एक, गोसावतेसु - बीस प्रकृति के उदयस्थान से आठ प्रकृति के स्थान तक, वयविही- उदय के मंग
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