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षष्ठ कर्म अभ्य
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के सत्ताइस कि सत्ता होता है तथा समष्टि रहते हुए जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की है, वह यदि परिणामवशात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है। ऐसा जीव चारों गतियों में पाया जाता है। क्योंकि चारों गतियों का सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है । 1
कर्मप्रकृति में कहा भी है
"बगया पज्जत्ता तिम्दि वि संजोयणे विजयंति । करणेहि तीहि सहिया नंतरकरणं जवसमो वा ॥ २ अर्थात् चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों को प्राप्त होकर अनन्तानुबंध की विसंयोजना करते हैं, किन्तु इनके अनन्तानुबंधी का अन्तरकरण और उपशम नहीं होता है ।
यहाँ विशेषता इतनी है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चारों गति के जीव, देशविरति में तिर्यंच और मनुष्य जीव तथा सर्वविरति में केवल मनुष्य जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क को विसंयोजना करते हैं । अनन्तानुबंध की बिसंयोजना करने के बाद कितने ही जीव परिणामों के वंश से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त होते हैं । जिससे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, यह सिद्ध हुआ ।
लेकिन अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के सात प्रकृतिक उदयस्थान रहते २८, २४, २३, २२ और २१, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इनमें से २०
१ यतश्चतुगंतिका अपि सम्यदृष्टयोऽनन्तानुबंधिनो विसंयोजयन्ति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२
२ कर्मप्रकृति उप० गा० ३१
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अत्र 'तिन्नि वि' ति अविरता देशविरताः सर्वविरता वा यथायोगमति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२