Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्ततिका प्रकरण
इस स्थान में स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति में से किसी एक का बंध होता है । अतः उक्त संख्याओं को परस्पर गुणित करने पर २२x२ भग प्राप्त होते है ।
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उक्त अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में होता है । जिससे यह बंधस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के ही बनता है। यहाँ भी २८ प्रकृतिक बंधस्थान के समान ही आठ भंग होते हैं ।
तीस प्रकृतियों के समुदाय को तीस प्रकृतिक संघस्थान कहते हैं । इस बंधस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं – देवगति, देवानुपूर्वी पंचेन्द्रिय जाति, आहारकद्विक वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, रामचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुगलबु उपघात, पराधात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेव, यशःकीति और निर्माण | इसका बंधक अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती को जानना चाहिये ।" इस स्थान में सब शुभ कर्मों का बंध होता है, अतः यहाँ एक ही भंग होता है ।
तोस प्रकृतिक बंधस्थान में एक तीर्थंकर नाम को मिला देने पर इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यहां भी एक ही भंग होता है। इस प्रकार देवगति के योग्य बंधस्थानों में ५+५+१+१= १८ भंग होते हैं। कहा भी है
अटुटु एक एक्कग भंगा बट्ठार देवजोगेसु ।
१ एतच्च देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतोऽप्रमत्तसंवसस्थापून करणस्य वा वेदितथ्यम् । -- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६