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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
उक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृति के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी छह भंग होते हैं, जिनका स्पष्टीकरण आतप और उचीत में से किसी एक प्रकृति के साथ छल्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में किया जा चुका है।
इस प्रकार एकेन्द्रिय के पांच उदयस्थानों के कुल भंग ५+११+ ७+१३+६. = ४२ होते हैं। इसको संग्नह गाथा में कहा भी है
एगिषयउवएस पंच य एक्कार सत्त तेरस या।
छपकं कमसो भंगा बायला हंति सम्घ वि। अर्थात् एकेन्द्रिय के जो २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक पाँच उदयस्थान बतलाये हैं उनमें क्रमशः ५, ११, ७, १३ और ६ भंग होते हैं और उनका कुल जोड़ ४२ होता है।
इस प्रकार से एकेन्द्रिय तिर्यंचों के उदयस्थानों का कथन करने के बाद अब विकलत्रिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के उदयस्थानों को बतलाते हैं।
द्वीन्द्रिय जीवों के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं।
पहले जो नामकर्म की बारह ध्रुवोदय' प्रकृतियां बतला आये हैं, उनमें तिर्य चगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय तथा यक्ष:कीति और अयश कीति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदशरथान होता है। यह उदयस्थान भव के अपान्तराल में विद्यमान जीव के होता है। यहाँ तीन भंग होते हैं, क्योंकि अपर्याप्त
१ तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ वर्णचतुक और
निर्माण, ये बारह प्रकृतियाँ उदय की अपेक्षा ध्रुव है।