Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
r
षष्ठ कर्म ग्रन्थ
૧૬૨
मंगों को अयशःकीर्ति के साथ कहना चाहिये जिससे चार भंग होते हैं तथा बादर पर्याप्त को यशः कीर्ति के साथ कहने पर एक भंग और होता है । इस प्रकार कुल पांच भंग होते हैं। यद्यपि उपर्युक्त २१ प्रकृतियों में विकल्परूप तीन घुगल होने के कारण २२२ - भंग होते हैं । किन्तु सूक्ष्म और अपयांप्त के साथ यशःकीति का उदय नहीं होता है, जिससे तीन भंग कम हो जाते हैं । भव के अपान्तराल में पर्याप्तियों का प्रारम्भ ही नहीं होता, फिर भी पर्याप्त नामकर्म का उदय पहले समय से ही हो जाता है और इसलिये अपान्तराल में विद्यमान ऐसा जीव लब्धि से पर्याप्तक ही होता है, क्योंकि उसके आगे पर्याप्तियों की पूर्ति नियम से होती है।
इन इक्कीस प्रकृतियों में औदारिक शरीर इंडसंस्थान, उपवाततथा प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक इन चार प्रकृतियों को मिलाने पर तथा तिर्यंचानुपूर्वी प्रकृति को कम कर देने से शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीव के चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां पूर्वोक्त पांच भंगों को प्रत्येक और साधारण से गुणा कर देने पर दस भंग होते हैं तथा वायुकायिक जीव के वैक्रिय शरीर को करते समय औदारिक शरीर के स्थान पर वैक्रिय शरीर का उदय होता है, अतः इसके वैक्रिय शरीर के साथ भी चौवीस प्रकृतियों का उदय और इसके केवन्द बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और अयशः कीर्ति, ये प्रकृतियां ही कहना चाहिये इसलिये इसकी अपेक्षा एक भंग हुआ। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव के साधारण और यशःकीति का उदय नहीं होता अत: वायुकायिक को इनकी अपेक्षा भंग नहीं बताये हैं । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में कुल ग्यारह भंग होते हैं।
1
अनन्तर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के बाद २४ प्रकृतिक उस्मान के साथ पराघात प्रकृति को मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है | यहाँ बादर के प्रत्येक और साधारण तथा यशः