Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षण्य कर्म ग्रन्थ
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अस्थिर में से किसी एक का शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति में से किसी एक का बंध होने से इन सब संख्याओं को गुणित करने पर २x२x२=८ भंग प्राप्त होते हैं । अर्थात् तीस प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग होते हैं ।
इस प्रकार मनुष्यगति के योग्य २५ २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थानों में कुल भंग १+४६०८८४६१७ होते हैं
वीसम्म एकको छायालाया अडसर गुती । मणूतीले उ सभ्ये छायालसमा उ सतरा ॥
अर्थात – मनुष्यगति के योग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में ४६०८ और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में ८ भंग होते हैं। ये कुल भंग ४६१७ होते हैं ।
अब देवगति योग्य बंघस्थानों का कथन करते हैं। देवगति के योग्य प्रकृतियों के बंधक जीवों के २८, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये चार बंधस्थान होते हैं । "
अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में – देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त प्रत्येक स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग, आदेश, सुस्वर, यशः कीर्ति और अयशः कोति में से कोई एक तथा निर्माण, इन अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है। इसीलिये इनके समुदाय को एक बंघस्थान कहते हैं । यह बंधस्थान देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्बमिध्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत जीवों को होता है।
१ देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतश्चत्वारि बन्धस्थानानि तद्यथा - अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिशद् एकत्रिंशत् । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६
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